हरचि कख पहाड़ कु कोदु कंडाली
गोल गफ्फा बंण्या रंदा थां जैन पहाड़ी
मोल थां बमोर पक्यां , डाला झकझोर झुक्यां
कन दिन थां तबरि, कुछ भी निथाई दुःख बीमारी
काफल किनगोड खाई , लोंण रालि-रालि....
कोदा का परताप यख , भड़ रै पहाड़ी
अर्थात पहाड़ का कोदा (मंडुवा) झंगोरा (सांवा) व कंडाली का साग और जंगल की विविधता कहाँ लुप्त हो गयी है, जिसे खाकर पहाड़ के लोग स्वस्थ रहते थे | तब बीमारियाँ कुछ नहीं थी | निसंदेह लोग संतुलित आहार शब्द भले ही नहीं जानते थे , किन्तु भोजन का संतुलन उनके खानपान में पर्याप्त मात्रा में होता था | सीजन के अनुसार यदि उनके खानपान की सूची बनायें तो सैकड़ों तरह की चीजें वो खाते थे | आज भी कहीं - कहीं खाई जाती है | उत्तराखंड के मशहूर लोक गायक प्रीतम भरत्वाण ने मायके की खुद (याद) में लिखा है "घुट - घुट बाडुली लगि छ मैं मैत की खुद लगीं छ, कोदा , झंगोरा की सारि काखड़ी मुंगरी कब औलू कब खौलु " (मायके आने और नई - नई चीजें खाने के लिये बेटियां लालायित रहती हैं) यह खानपान आज भी लोगों को कई खतरनाक रोगों से बचाता है | यह न कोलस्ट्रोल बढ़ने देता न मोटापा | हमारे खानपान में मंडुवा - झंगोरा खूब था किन्तु हम बाहरी दुनिया से इसे छिपा कर रखते थे | हम उन अनाजों को प्रतिष्ठा नहीं देते थे | ढाई दशक पूर्व जब हमने "बीज बचाओ आन्दोलन" के सभा -सम्मेलनों में सार्वजानिक तौर पर यह भोजन परोसा तो हमारी खूब आलोचना हुई |
किन्तु हमें प्रसन्नता है की उत्तराखंड के लोग अब मंडुवा - झंगोरा की पौष्टिकता पर गर्व करने लगे हैं | हेंवलवाणी और बीज बचाओ आन्दोलन से जुड़े युवा रचनाकार रवि गुसाईं ने ठीक ही लिखा है " कनु भलु लगदु भईयों बारहनाज कु स्वाद" (बारहनाज का स्वाद कितना अच्छा लगता है) फिर भी हमारे समाज एवं नीति - निर्धारकों का ध्यान इस ओर इतना नहीं है जितना होना चाहिए | दक्षिण भारत का इडली , डोसा व सांभर और बड़ा सिर्फ दक्षिण में नहीं अपितु सब जगह बड़े शौक से खाया जाता है | यहां देवभूमि हिमालय में तीर्थ यात्रियों एवं पर्यटकों की इतनी भरमार है , फिर भी होटलों व ढाबों में चाउमिन, पिज़्ज़ा, बर्गर पास्ता आदि का स्वाद लेने के लिए लोग भी अपना स्वास्थ्य खराब करने में पीछे नहीं है | जबकि यदि पर्यटन विभाग व अन्य होटल व्यवसायी यहां के खानपान की रैसिपी तैयार करें तो यहां के विविधता युक्त दर्जनों व्यंजनों का डंका पूरी दुनिया में बजने लगेगा , यहां के व्यंजनों का स्वाद व पोषण बरबस लोगों को खींच लायेगा | इससे स्थानीय खानपान को तो प्रतिष्टा मिलेगी ही साथ ही किसानो और व्यवसायियों की अतिरिक्त आय भी होगी , वे पारंपरिक विविधता युक्त खेती की तरफ वापिस लौटेंगे | युवाओं और बेरोजगारों के लिए निसंदेह इससे रोजगार के दरवाजे खुलेंगे और तीर्थाटन एवं ईको टूरिज्म को सही दिशा मिलेगी | उत्तराखंड के खानपान की नई पहचान बनेगी |
उत्तराखंड में खानपान की संस्क्रति
विजय जड़धारी
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